शनिवार, 16 मई 2020

पलायन

उन आंखों की बेबीसी देखो
जिस शहर में रहते थे वह भी आज बेगाना सा लगने लगा
दर्द बनकर आंखों से आंसू बहने लगे बस अपनों का ही सहारा रह गया
दुर्गम रहे थी उन पर चलते ही जाना था सभी हमदर्द थे लेकिन अपने को बस चलते ही जाना है

उनकी खामोशी न जाने कितने दर्द बयां करती थी
चेहरे की मासूमियत अपनों से कुछ उम्मीद लगा रखी थी
यह दर्द ऐसा था की उन मुसाफिरों का जिनके मंजिल का पता नहीं अपने को बस चलते ही जाना है

शुक्र है कि गांव में एक आशियां अपना भी है
शहर की चमकती रोशनी से कहीं अच्छा है
चले थे अपनों से कहीं दूर किंतु अब वापस नहीं गलियों में जाना है




शायद कभी रुक जाए यह पलायन
 फिर भी अपने को बस चलते ही जाना है
 अपने को बस चलते ही जाने

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कहानी संघर्ष की।

 कहानी संघर्ष की।                                                                                                          2023 के संघर्ष  क...