शनिवार, 23 मई 2020

शहर

शहर की इंसानी बस्तियां अब वीरान हो चली।
खिलता था शहर बाजारों में उन गलियों में खामोशी हो गई।
आशियानो में अब परिंदों का आसरा बन गए।
इंसान उन सब को छोड़ कर अपने पुराने मकान में लौट चलें। शहर की इंसानी बस्तियां अब वीरान हो चली।

कह गए कि अब नहीं आएंगे इस शहर में,
जिसने हमें दर्द के सिवा कुछ और न दे सका।
हमने तो सब कुछ दिया फिर भी चलते हैं रास्ते पर
जिसने हमें दूरियों को कम कैसे करें ये सिखा दिया।
शहर की इंसानी बस्तियां अब वीरान है चली।

हमें अपने सपनों को भूल गए  इन आशियानो को सजाने के लिए।
हमें मोहलत नहीं मिली अपने आशियां बनाने के लिए।
शहर के कुछ लोगों ने ये ऐसा भाव दे दिया।
जिसे भुलाने के लिए न जाने कितने दर्द से हमें गुजरना पड़ा।
शहर की इंसानी बस्तियां वीरान हो चली

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